वरिष्ठ पत्रकार सीताराम शर्मा की अनुभवी कलम से शानदार विवरण : ‘महिला ‘सामान’ नहीं, सम्मान की हकदार है’

सीताराम शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समाज चिन्तक

सीताराम शर्मा

सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त को एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया कि पिता की सम्पति में बेटी का बेटे के बराबर का अधिकार होगा। मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने कहा है कि “बेटी हमेशा बेटी होती है, पुत्री जीवन भर अविभाजित संयुक्त परिवार की संपत्ति के उत्तराधिकार में दूसरों के साथ समान रूप से साझेदार रहेंगी, चाहे उसका पिता जीवित हो या नहीं। बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिया जाना चाहिए, बेटी जीवन भर एक प्यारी बेटी रहती है।” यह निर्णय 18 सितम्बर 2005 के निर्णय को संशोधित करता है, जिसमें कहा गया था कि बेटियों का केवल तभी अधिकार हो सकता है, जब पिता और पुत्री दोनों जीवित हों“

अब आते हैं कुछ पुरानी घटनाओं पर जो महिलाओं के ऊपर लिखे जा रहे इस विवरण को समझने में आपकी मदद करेगा।

दिल्ली निर्भया कांड के दोषियों को भले ही सजा मिल चुकी है लेकिन कुछ साल पहले घटी इस घटना में युवती के साथ जो हुआ था वह केवल इसलिए घिन पैदा नहीं करता कि जो हुआ वह घृणित था बल्कि इसलिए भी कि यह महिलाओं के आगे आने व कुछ करने के, पहले से ही तंग रास्तों को कुछ और संकरा बना देता है। यह उन्हें पीछे खींचने के लिए हर वक्त तैयार रहने वालों को एक बड़ा मौका देता है। देश की राजधानी दिल्ली में युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म की जो घटना घटी उसने हम सभी को शर्मिंदा कर दिया। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना ने दिल्ली के साथ-साथ पूरे देश को दहला दिया था और तब जाकर सरकार जागी थी लेकिन बलात्कार की शिकार युवती को मौत के मुँह में जाने से नहीं बचाया जा सका था।

हमारे समाज में एक तरफ की सामंतवादी और मर्दवादी सोच गहरे तक बैठी हुई है। आम आदमी की बात दूर, यहाँ तक कि नेताओं, पुलिस, मुखियाओं से लेकर मुख्य न्यायाधीशों तक सभी ने महिलाओं के बारे में खेदजनक टिप्पणियाँ की हैं। समाज में महिलाओं की स्थिति में बड़ा परिवर्तन घटा है। इस ओर राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फूले, ईश्र्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे महापुरुषों ने स्त्री उत्थान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समाज सुधार में योगदान उन अनगिनत पुरुषों का भी है जिन्होंने जाने-अनजाने अपने आस-पास की महिलाओं के जीवन में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का उजाला बिखेरा है। जिन्होंने सामाजिक दबाव के बावजूद अपने घरों में बेटियों का जन्म होने दिया, खस्ता हाली के बावजूद उन्हें स्कूल पढ़ने भेजा और शादियों में दहेज न लेने का फैसला लिया, उन तमाम पतियों का जिन्होंने अपनी पत्नियों की पढ़ाई, शादी के बाद पूरी करवाई, उन भाइयों का जिन्होंने अपनी बहनों को अपना व्यक्तित्व खोजने के लिए प्रोत्साहित किया और उनके सपनों तक पहुँचने के रास्ते गढ़ने में उनका हाथ बंटाया।

प्रतीकात्मक फोटो

दुर्भाग्यवश भारतीय स्त्री की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में 21वीं शताब्दी में आज भी बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है। निस्संदेह कानून के स्तर पर बड़े बदलाव आए हैं। बलात्कार संबंधी कानूनों को स्त्री के पक्ष में मजबूत किया गया, साथ ही तलाक, यौन-उत्पीड़न औप पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी से संबंधित नये कानूनों ने महिलाओं की स्थिति को मजबूत किया है। साल 1991 की जनगणना में महिलाओं के गिरते लिंगानुपात की बात मुखरता से सामने आई तो कन्या-भ्रूण हत्या को रोकने के लिए नयी नीतियाँ बनाई गईं। महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं के अस्तित्व से जुड़ी समस्या को सबने स्वीकारना शुरू कर दिया है। यह स्वीकार किया जाने लगा है कि लड़कियों को जन्म से पहले मार देना, बलात्कार, दहेज के लिए जला देना या फिर उन्हें शिक्षा से दूर रखना एक समस्या ही नहीं, अपराध है।

महिलाओं की स्थिति अपनी पूरी जटिलता में आज हमारे सामने आ रही है, इस लिहाज से देखें तो हालात पिछले 40 वर्षों में कहीं ज्यादा बदतर हुए हैं। बलात्कार, दहेज-हत्या, कन्या-भ्रूण हत्या, छेड़-छाड़ और कार्यस्थल पर उत्पीड़न की घटनाएँ भी तेजी से बढ़ने लगी हैं। मीडिया और सूचना-तंत्र की वजह से महिलाओं की वर्तमान वास्तविक स्थिति हमारे सामने और अधिक उजागर हो रही है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग हर समाज अपनी सामाजिक संरचना के हिसाब से महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अलग-अलग तरीके ढूँढ लेता है और साथ ही उस हिंसा को उचित ठहराने के तर्क भी। सती निरोधक कानून में रूप कंवर सती मामले के संदर्भ में संशोधन का विरोध इसका उदाहरण रहा है। राजस्थान के गाँव देवराला में रूप कंवर के सती होने की घटना लगभग एक हफ्ते बाद पूरे देश को पता चली थी। 16 दिसम्बर 1987 को जब इस राजपूत महिला के सती होने के 13वें दिन चुनरी महोत्सव के लिए तैयारियाँ शुरू हुई तब देशभर के मीडिया ने इसे बहस का मुद्दा बना दिया। जगह-जगह आन्दोलन हुए और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने सती निरोधक कानून को और कठोर बनाने की मांग की। जब यह मामला केन्द्र सरकार के पास गया तो महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सती निरोधक कानून के तहत आरोपियों की सजा बढ़ाने के साथ-साथ समुदाय और उस गाँव के प्रमुख को आरोपित बनाने की सिफारिश की। हैरानी की बात यह रही कि संसद में बहस के दौरान कतिपय सांसदों ने इस कानून में बदलाव का काफी विरोध किया। उनका तर्क था कि राजपूतों की इस परम्परा में कानून का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। हालांकि इस विरोध के बाद भी सती निरोधक कानून में संशोधन पारित कर दिया गया।

सदियों से सामाजिक व्यवस्था महिलाओं के साथ ‘सामान’ की तरह बर्ताव करती रही है। यह सुखद विषय है कि करीब 7 दशक पुरानी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने लगातार यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि स्त्रियाँ ‘सामान’ नहीं हैं और उन्हें उनके हिस्से का ‘सम्मान’ मिलना चाहिए। ऐसा उसने कुछ बेहद महत्वपूर्ण कानून बनाकर किया है – पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण, घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005, दहेज प्रतिबंध अधिनियम 1961, प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम 1961, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न निवारण कानून 2012 आदि। दिल्ली में हुए घिनौने सामूहिक बलात्कार काण्ड और उसके बाद कई ऐसे घिनौने अपराधों ने न केवल महिलाओं की असुरक्षा बल्कि उनके प्रति गलत सोच को भी उजागर किया है। आवश्यकता है समाज में सुधार की, महिलाओं के प्रति सोच बदलने की।

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