गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
वो जगाता है रात भर हम को
जिसने देखा न इक नज़र हम को
शाम तो थक चुकी है करके तलाश
ढूँढने आई अब सहर (सुब्ह) हम को
तेरी यादों का था वहाँ मेला
छोड़ आया था तू जिधर हम को
आईना बन गई हैं दीवारें
अब डराता है अपना घर हम को
संग (पत्थर) उसने उठाया हाथों में
अब बचाना है अपना सर हमको
हिर्स-ए-मंज़िल (मंज़िल की चाह) हमें करे रुस्वा
न दिखाओ नई डगर हम को
राहबर राहज़न (लुटेरा) हुए ‘तालिब’
तय नहीं करना है सफ़र हम को
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