‘ख़ाकी’ की कलम से ‘गज़ल’ की गली (46)

मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस

गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी

बहुत हैरान हूँ मुझ में नज़र आता है क्या ज़िन्दा
जो हर पल ख़त्म होता हूँ तो बच जाता है क्या ज़िन्दा

जहाँ इक रोज़ जाकर क़ब्र में चुपचाप सोना है
वहाँ जाने से फिर रातों को घबराता है क्या ज़िन्दा

कि उसके नाम ही से क्यों धड़कता आज भी दिल है
तअल्लुक़ ख़त्म कब का हो चुका नाता है क्या ज़िन्दा

वो मुर्दा है कि जिसकी फ़िक्र को सिक्के नाचते हैं
बुरीदा (कटा हुआ) ज़ह् न का इंसाँ भी कहलाता है क्या ज़िन्दा

तिरी यादों की ख़ुश्बू जब मिरी साँसों को मिलती है
मिरे बेजान से इस तन में हो जाता है क्या ज़िन्दा

कहीं लफ़्ज़ों की लाशें हैं कहीं एहसास की नाअ्शें (लाश)
अब इन आलाम (तकलीफ़) में ‘तालिब’ ग़ज़ल गाता है क्या ज़िन्दा

■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस

यह भी पढ़ें : ‘ख़ाकी’ की कलम से ‘गज़ल’ की गली (45)

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here