गजल संग्रह : हासिल-ए-सहरा नवर्दी
हर शिकायत जो कभी थी दरमियाँ
बस मुहब्बत रह गई थी दरमियाँ
रफ़्ता-रफ़्ता तीरगी (अन्धेरा) छाने लगी
धूप दौलत की ढली थी दरमियाँ
जाने क्यों ऐसा लगा कोसों हैं दूर
दो क़दम की बस कमी थी दरमियाँ
इश़्क के सूरज से भी पिछली नहीं
बर्फ़ कैसी जम चुकी थी दरमियाँ
फिर फ़लक बोस (गगनचुंबी) इक इमारत बन गई
एक बस्ती जब जली थी दरमियाँ
सामने हम थे उसे दिखते न थे
जाने कैसी रौशनी थी दरमियाँ
एक रास्ता तय हुआ ‘तालिब’ अगर
इक सफ़र की तिश्नगी (प्यास) थी दरमियाँ
■ मुरलीधर शर्मा ‘तालिब’, संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध), कोलकाता पुलिस
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