1971 में भारतीय सेना की शानदार विजय के 2 दिन बाद की संस्मरण यात्रा सीताराम शर्मा की अनुभवी कलम से

सीताराम शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समाज चिन्तक

पूरे क्षेत्र में लैंड ‘माइन्स’ लगाये गये थे और कभी भी विस्फोट की सम्भावना थी

सीताराम शर्मा

19 दिसबंर, 1971 यानी पाकिस्तान सेना के आत्मसमर्पण एवं भारतीय सेना की शानदार विजय के ठीक 2 दिन बाद सुबह 7 बजे भारतीय सेना की पूर्वी कमान की निगरानी में पहला पत्रकार दल बांग्लादेश के लिए रवाना हुआ। दल अलग-अलग कारों में था, मेरे साथ सत्युग बांग्ला दैनिक के संपादक जीवन बनर्जी, छपते-छपते के संपादक विश्‍वम्भर नेवर एवं श्रवण तोदी भी थे।

हमारा पहला पड़ाव जैसोर था। हम जैसोर कैन्टोनमेंट पहुँचे, जहाँ 91000 पाकिस्तानी सैनिकों को आत्मसमर्पण के बाद भारतीय सेना ने बन्दी बनाकर रखा था। सैनिक केला खा रहे थे एवं रेडियो पर गाना सुन रहे थे। हमने कई पाकिस्तानी सैनिकों से बात की। उनमें से अधिकतर भयभीत थे एवं अपनी सरकार को कोस रहे थे, लेकिन इतना कुछ घटने के बाद भी उनमें बंगलादेशियों के प्रति सहानुभूति तो दूर बल्कि भीषण गुस्सा था। कई सैनिकों ने उन्हें देशद्रोही तक कहा। आत्मसमर्पण के बाद भारतीय सैनिकों के व्यवहार एवं व्यवस्था से वे संतुष्ट नजर आये। जैसोर कैन्टोन्मेंट से खुलना बंदरगाह के रास्ते में हमें बार-बार भारतीय सेना के अधिकारियों ने सावधान किया कि हमारी गाड़ी सड़क के नीचे नहीं उतरे एवं हम पैदल कहीं नहीं जाएं, क्योंकि पूरे क्षेत्र में लैंड ‘माइन्स’ लगाये गये हैं एवं कभी भी विस्फोट हो सकता है।


इसी रास्ते में भारतीय सेना का टी-72 टैंक देखा। यह रूसी है और इतना हल्का है कि यह पानी में तैर सकता है। बंगलादेश की छोटी-छोटी नदियों में इस टैंक ने पाकिस्तानी सेना पर हमले में बड़ी भूमिका निभायी। पाकिस्तानी सैनिक इस बात पर विश्‍वास ही नहीं कर पा रहे थे कि टैंक नदी में तैर सकता है। हमने टैंक के साथ खड़े होकर फोटो भी खिंचाई। जैसोर से खुलना के रास्ते में कई इलाके में भयंकर तनाव देखने को मिला, विशेषकर जहाँ मुजाहिदों की बहुतायत थी। वे भयभीत एवं आतंकित दिख रहे थे। इसी एक इलाके में भगदड़ के बीच हमारी कार सेना के काफिले से अलग हो गयी एवं हम मुजाहिदों की बस्ती में भूल से घुस गये। कार चला रहे बंगाली ड्राइवर ने आतंकित होकर गाड़ी को पागलों की तरह ऐसा भगाया कि कई दफा टक्कर होते-होते बची। शहर में बड़ी संख्या में लोग सड़क पर थे। जश्न के साथ-साथ बदले का भी माहौल था। भारतीय सेना को ‘सिख सेना’ एवं पाकिस्तानी सेना को ‘पंजाबी सेना’ के नाम से बोल रहे थे। जब भारतीय सेना के टुकड़ी की गाड़ी जाती थी तो लोग खुशी एवं उत्साह में सिख सेना जिन्दाबाद के नारे लगाते। हमने रिक्शा में बंगलादेशी युवकों को पाकिस्तानी मुसलमानों के कटे सिरों को प्रतिशोध के नारे लगाते हुए ले जाते देखा। बदले की आग साफ झलक रही थी। पाकिस्तानी सैनिकों एवं रजाकारों ने जुल्म एवं अत्याचार की हर सीमा पार कर दी थी। हमने कुछ मुजाहिदों एवं मुक्ति योद्धाओं से बातचीत की। दोनों का पाकिस्तान के प्रति गहरा आक्रोश था।

जैसोर में भारतीय सेना के टी-72 टैंक के पास यादगार फोटो में वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक सीताराम शर्मा (टैंक के ऊपर दाहिनी तरफ)। उनके साथ हैं सत्युग बांग्ला दैनिक के संपादक जीवन बनर्जी, छपते-छपते के संपादक विश्‍वम्भर नेवर एवं श्रवण तोदी

खुलना बन्दरगाह, भारतीय बमबारी से पूरी तरह तबाह हो गया था। हम ‘माइन्स’ से बचते-बचते किनारे तक गए जहां हमने एक पाकिस्तानी सैनिक को हाथ में एन्टी एयरक्राफ्ट गन लिए मृत अवस्था में देखा। सैनिक का परिचय पत्र उसके ऊपरी पाकेट में झूल रहा था। उसे एवं एन्टी एयरक्राफ्ट गन की दागी गयी गोली का खोला मैंने स्मरण चिह्न के रूप में उठा लिया। खुलना के पास ही हमें व्यापारी जैसे कुछ व्यक्ति दिखे। जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वे पाट के दलाल हैं एवं कलकत्ता से भावी व्यापार की संभावना सूंघने आज सुबह ही आए हैं। एक ने चहक कर कहा “साढ़े सात करोड़ लोगों का बाजार है।” मेरा साथी बंगाली पत्रकार चकित एवं चिन्तित नजर आया।

बंगलादेश मुक्ति आंदोलन भारतीयों की संवेदना से जुड़ा एक प्रश्न था। पाकिस्तानी सेना का नृशन्स हत्याकाण्ड, अत्याचार, अन्याय, बलात्कार एवं व्याभिचार मानवता के नाम पर कलंक था। मुक्ति आंदोलन के दौरान मुझे अपने साथियों के साथ दो बार बेनापोल एवं पेट्रापोल सीमा पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ, जहां हमने बंगलादेशी मुक्ति योद्धाओं जिन्हें इस्टर्न फ्रन्टियर राइफल्स के नाम से जाना जाता था, को विभिन्न सामग्री प्रदान कर सहयोग प्रदान किया। इसी दौरान आनन्द बाजार पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार बरुण सेनगुप्ता से सीमा पर मुलाकात हुई, जिनकी बंगलादेश मुक्ति युद्ध की सनसनीखेज रपटों ने हड़कम्प मचा रखी थी। भारत-पाकिस्तान का 1971 का युद्ध भारतीय सेना की सबसे बड़ी जीत का प्रतीक है। भारतीय सेना की ऐतिहासिक एवं अद्भुत विजय को स्मरण करते हुए हम उन युवा बंगाली मुक्ति योद्धाओं को नहीं भूल सकते जिन्होंने बांग्लादेश की मुक्ति में अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था। वे सच्चे स्वतंत्रता सेनानी थे। हम पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण दिन को आज भी विजय दिवस के रूप में मनाते हैं।

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